
भारत के अजीबोगरीब सरकारी विज्ञापन और वे हमें क्या बताते हैं
भारत के सरकारी विज्ञापन कभी शिक्षा देते हैं, कभी हँसी लाते हैं, और कभी खुद ही व्यंग्य बन जाते हैं। Desi Radar इस लेख में बताता है कि ये विज्ञापन हमें क्या सिखाते हैं और सरकार की सोच को कैसे उजागर करते हैं।
1. अनुभव - जब सरकार कहानियाँ सुनाने लगी
कभी बूंद-बूंद से घड़ा भरता है वाला संदेश, कभी घर की रानी बिजली बचाएगी और कभी कोई CGI भूत जो कहता है हेलमेट पहनो नहीं तो मर जाओगे। सरकारी विज्ञापन का मकसद जनता को समझाना होता है, लेकिन कई बार वे इतने विचित्र बन जाते हैं कि खुद व्याख्या की जरूरत पड़ जाती है। वे सिर्फ सूचना नहीं, सरकार की मानसिकता भी दिखाते हैं।
2. विशेषज्ञता - इतिहास से लेकर वर्तमान तक
1950 और 60 के दशक में जब Doordarshan और All India Radio ही मुख्य माध्यम थे, सरकार सीधे जनता से बात करती थी। हम दो हमारे दो सिर्फ परिवार नियोजन नहीं, बल्कि नैतिक शिक्षा का प्रतीक था। 90s में विज्ञापन glamor में बदले, पर सरकारी ads अब भी नैतिक उपदेश की शैली में रहे।
2020s में सोशल मीडिया ने सब उलट दिया। अब वही विज्ञापन meme बन जाते हैं। ORF और Reuters की 2023 रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर साल सरकारी विज्ञापनों पर लगभग 2500 करोड़ रुपए खर्च होते हैं, लेकिन उनके प्रभाव को मापने की कोई स्वतंत्र प्रणाली नहीं है। headline बस यही होती है - सरकार ने प्रचार पर इतना खर्च किया।
3. प्रामाणिकता - जब संदेश प्रचार बन गया
हर विज्ञापन किसी न किसी narrative को मजबूत करता है। कभी विकास की गाथा, कभी आत्मनिर्भर भारत, तो कभी नया भारत। visuals में प्रधानमंत्री की छवि बड़ी होती है और जनता की भूमिका घटती है।
राज्य से केंद्र तक हर सरकार अपने विज्ञापनों में हमने किया का दावा करती है, लेकिन हम सब मिलकर कर सकते हैं वाला स्वर दुर्लभ है। नागरिक को सहभागी नहीं, श्रोता बना दिया गया है।
4. अनुभव की परत - जब हास्य सच्चाई बोलता है
सोशल मीडिया ने सरकारी विज्ञापनों को हास्यपूर्ण जीवन दिया। प्लास्टिक मत इस्तेमाल करो वाले ad में प्लास्टिक शीट दिखती है, digital India की पोस्ट में दीवार टूटी होती है। एक राज्य के tourism ad में विदेशी model और Make in India पोस्ट में imported image - यानी satire अब खुद creatives से निकलता है।
लोग अब ads को decode करते हैं - क्यों यह tone, किसे target किया गया, क्या छिपाया गया। जनता अब passive viewer नहीं रही, active analyst बन गई है।
5. विश्वास - जनता की कहानी कौन सुनाएगा
अब सबसे बड़ी चुनौती भरोसे की है। जब जनता हर संदेश को propaganda समझने लगे, तो genuine जागरूकता अभियान भी असर खो देते हैं। अगर सरकारें storytelling में ईमानदारी लाएँ - जैसे सड़क सुरक्षा में पीड़ित परिवारों की असली कहानी, या स्वच्छता में ग्राउंड वॉलंटियर्स की आवाज़ - तो भरोसा लौट सकता है।
संचार का मकसद persuasion नहीं, participation होना चाहिए। भरोसा slogans से नहीं, sincerity से बनता है।
6. निष्कर्ष - विज्ञापन आईना हैं, Photoshop नहीं
हर सरकार अपने विज्ञापनों में खुद को showcase करती है, लेकिन जनता अब चमक नहीं सच्चाई देखना चाहती है। जब विज्ञापन image building का औजार बन जाते हैं, तो असली कहानी - किसान, शिक्षक, विद्यार्थी, स्वास्थ्यकर्मी - सब पीछे रह जाते हैं।
अगर सरकारी विज्ञापन सच बोलना शुरू करें, तो देश का narrative खुद सुधर जाएगा। आखिर जनता जानती है, सच्चाई झूठे रंगों में नहीं छिपती, वह रोज़मर्रा के अनुभव में दिखती है।
लेख © 2025 Desi Radar. स्रोत: ORF रिपोर्ट 2023, Reuters Institute, सोशल मीडिया टिप्पणियाँ और विज्ञापन विश्लेषण।